सोशल मीडिया -मीडिया और मुसलमान

सोशल मीडिया -मीडिया और मुसलमान

शिब्ली रामपुरी

     शिब्ली रामपुरी

               मीडिया से हमेशा से मुसलमानों को शिकायत रही है कि वह उनकी बात नहीं सुनता और कई बार मुस्लिम समाज की ओर से इस पर नाराजगी भी जताई जाती रहती है हालांकि सोशल मीडिया आने के बाद कुछ हद तक यह नाराजगी कम जरूर हुई है लेकिन फिर भी मुसलमानों की एक बड़ी आबादी आज भी यह मानती है कि मुसलमानों की सही तस्वीर मीडिया नहीं दिखाता है और इसी वजह से मुसलमानों के बारे में तमाम तरह की ग़लतफहमीयां भी पैदा होती हैं जिसका कहीं ना कहीं मुसलमानों को नुकसान उठाना पड़ता है.
               वैसे कड़वी सच्चाई यह भी है कि जिस तरह से मीडिया से मुसलमानों को जुड़ना चाहिए था उस तरह से मीडिया से मुसलमान जुड़ नहीं सके हैं और आज भी सोशल मीडिया के दौर में भी मुस्लिम समाज के लोग सोशल मीडिया से उस तरह नहीं जुड़ सके हैं कि जिस तरह सोशल मीडिया का सही इस्तेमाल मुसलमानों को करना चाहिए था अपने बारे में और मज़हबी तौर पर जो गलतफहमियां लोगों में फैलाई गई है उनको दूर करना चाहिए था मुसलमान अफसोस सोशल मीडिया का भी बेहतर तरह से इस्तेमाल नहीं कर सके हैं सिर्फ वीडियो देखने या फिर कुछ सोशल मीडिया प्लेटफार्म पर कुछ पोस्ट कर देने से या कहीं पर गुस्सा निकाल देने से या फिर छोटी-मोटी खबरों को इधर से उधर कॉपी पेस्ट करने तक ही मुस्लिम समाज के अधिकतर युवा लगे रहते हैं और वह अपनी ओर से ऐसा कोई मजबूत प्रयास करते दिखाई नहीं देते कि जिससे मुसलमानों के बारे में पूरी दुनिया में एक अच्छा संदेश जा सके या फिर जहां-जहां पर वह रहते हैं जहां तक अपनी बात पहुंचाना चाहते हैं वहां तक वह मजबूत तरीके से अपनी बात पहुंचा सकें इसका काफी अभाव आज भी सोशल मीडिया के दौर में मुस्लिम समाज में नजर आता है.
              मुझे यह कहने में भी किसी तरह का कोई गुरेज नहीं है कि जिस तरह से हमारे दूसरे समुदाय के भाइयों ने सोशल मीडिया का अच्छा इस्तेमाल किया है और एक मजबूत मीडिया के तौर पर सोशल मीडिया उनकी बात उठाता है उनके बारे में दिखाता है उनकी सही तस्वीर पेश की जाती है ऐसा मुसलमानों में नहीं हो रहा है जबकि मुस्लिम समाज की बहुत बड़ी आबादी मोबाइल का इस्तेमाल करती है इंटरनेट का इस्तेमाल करती है सोशल मीडिया के विभिन्न प्लेटफार्म पर भी मुस्लिम समाज के बहुत बड़ी संख्या में युवा एक्टिव दिखाई देते हैं. अब बात करते हैं प्रिंट मीडिया और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की. टीवी जगत से लेकर प्रिंट मीडिया तक में जो मुस्लिम पत्रकार हैं या जिन मुसलमानों के अखबार या कहीं पर कोई चैनल हैं या वह किसी तरह उनसे जुड़े हैं उनकी हौसला अफजाई भी मुसलमानों की ओर से नहीं की जाती है यही वजह है कि वह बेचारे तमाम तरह के जतन करने के बाद भी आगे नहीं बढ़ पाते हैं.
               कई ऐसे मुस्लिम पत्रकार हैं जिनकी यह शिकायत रहती है कि चुनाव के समय उनको पूरी तरह से या काफी हद तक उन्हीं के समुदाय के नेता नजरअंदाज कर देते हैं. सोचिए जब ऐसे हालात होंगे तो किस तरह से मीडिया आपकी बात कर सकता है क्योंकि मीडिया भी आज एक व्यापारिक रूप धारण कर चुका है और किसी भी मीडिया संस्थान को चलाने के लिए सबसे पहले पैसे की जरूरत होती है आप जिस भी तरीके से हो ऐसे मीडिया संस्थानों की सहायता कीजिए कि जो आपकी सही तस्वीर पेश करते हों. जो मुस्लिम समाज के पत्रकार हैं मुस्लिम रहनुमाओं को उलेमाओं को नेताओं को चाहिए कि वह उन पत्रकारों की हौसला अफजाई करें जो उनमें अच्छे पत्रकार हैं उनको बुलाकर उनको सम्मानित किया जाए. छोटे-छोटे क़सबो या शहरों में भी इस तरह के पत्रकारों की हौसला अफजाई होनी चाहिए तभी मीडिया से मुस्लिम समाज के जो लोग जुड़े हुए हैं वह आगे बढ़ सकते हैं उनमें एक नया हौसला पैदा हो सकता है.
            जो लोग यह शिकायत करते हैं कि मीडिया हमारी बात नहीं करता है ऐसे मुसलमानों से मेरा यह सवाल भी है कि वह एक बार यह भी सोचे कि जिस मीडिया से उनको शिकायत रहती है उस मीडिया का उन्होंने कभी किसी तरह से क्या कोई योगदान किया है क्या कोई सहयोग किया है? जो हमारे हिंदू पत्रकार भाई मुसलमानों की खबरों को खूब दिखाते हैं या उनकी खबरें अखबारों में प्रकाशित करते हैं उनका कितना सम्मान मुस्लिम समाज के नेताओं -रहनुमाओ- उलेमाओं की ओर से किया जाता है?

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