ट्रिपल तलाक के कानून से लेकर गुजारा भत्ते के फैसले तक
(शिब्ली रामपुरी)
केंद्र सरकार द्वारा ट्रिपल तलाक पर कानून बना दिया गया और इसकी सराहना मुस्लिम समाज में भी हुई यह बात अलग है कि कुछ बातों को लेकर मतभेद जरूर है वह इसलिए है कि कानून बनाते समय मुस्लिम समाज के विद्वानों /बुद्धिजीवी वर्ग से इस मुद्दे पर बातचीत नहीं की गई थी
अभी हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने एक बार फिर से शाहबानों केस की तरह एक मामले में फैसला दिया है.यह फैसला कहता है कि तलाकशुदा मुस्लिम महिलाओं को भी गुजारा भत्ता पाने का अधिकार है. सुप्रीम कोर्ट का फैसला जाहिर है कि मामले की गंभीरता को देखकर दिया गया है और यह मुस्लिम समाज की महिलाओं के अधिकारों को और सशक्त बनाने की दिशा के तहत दिया गया फैसला है लेकिन इस फैसले में माननीय अदालत को कुछ और बातों को भी ध्यान में रखना चाहिए कि आपसी रजामंदी से जो तलाक होते हैं उस मामले में भी अगर पूरी उम्र मेंटेनेंस तलाकशुदा को दिया जाएगा तो फिर एक इंसान पर कितना भार पड़ेगा? जहां पर तलाक के मामले में जुल्म होगा वहां पर ट्रिपल तलाक का कानून है लेकिन जहां तक गुजारा भत्ते की बात है तो पूरी उम्र एक महिला को गुजारा भत्ता देना हर व्यक्ति की हैसियत के दायरे में नहीं होगा दूसरी तरफ़ मौजूदा दौर में लिव इन रिलेशनशिप का भी खूब चलन चल रहा है और इसके अधिकतर परिणाम भी काफी खतरनाक सामने आते रहते हैं तो ऐसे में सवाल यह है कि तलाक दिए जाने के बाद यदि कोई महिला किसी के साथ लिव इन रिलेशनशिप में रहने लगेगी और फिर वह गुजारा भत्ते की मांग करने लगे तो कैसे एक व्यक्ति जो उसको तलाक दे चुका है वह गुजारा भत्ता दे पाएगा और क्या यह गुजारा भत्ता देना कानूनी तौर पर और सामाजिक तौर पर सही होगा? इन चंद सवालों पर भी सरकार से लेकर अदालत तक को विचार करना होगा क्योंकि जब पुरुष और महिला में समानता का अधिकार संविधान देता है तो फिर संविधान के तहत बराबर का कानून महिलाओं और पुरुषों के अधिकारों के लिए बनाया जाना चाहिए.
यहां यह कहना भी जरूरी है कि काफी वक्त से मुस्लिम पुरुषों की छवि एक ऐसे इंसान की बना दी गई है कि जैसे वह सिर्फ महिलाओं पर अत्याचार करने में लगा रहता है और उसका मकसद ही महिलाओं को प्रताड़ित उनका उत्पीड़न करना है जबकि ऐसा नहीं है. टीवी चैनल पर जाकर शोर शराबा करने वाले कुछ चंद मुस्लिम चेहरों और मीडिया में हमेशा खुद के चेहरे को चमकाए रखने की कोशिश में लगे अघोषित विद्वान कहे जाने वाले कुछ लोगों ने मुस्लिम समाज की छवि को काफी नुकसान पहुंचाया है और पहुंचा भी रहे हैं इनका कम और अधूरा ज्ञान बहुत ज्यादा नुकसानदायक साबित हो रहा है और गैर मुसलमानों में मुसलमानों के प्रति एक तरीके का नकारात्मक भाव पैदा होता है. मुसलमानों की छवि खराब होती है. क्योंकि टीवी चैनलों तक उन मुसलमानों की पकड़ इतनी मजबूत नहीं है कि जो हकीकत में ज्ञानी लोग हैं और हर बात को समझते हैं तो फिर आधा अधूरा ज्ञान रखने वाले यह लोग मुसलमानों की छवि को इस तरीके से पेश करते हैं कि जैसे सिर्फ मुस्लिम कट्टरवाद की ही बात करता है और उसके दिल में किसी तरह का कोई रहम नहीं है जबकि स्थिति इसके काफी विपरीत है आज बहुत सारे ऐसे मदरसे हैं कि जहां पर धार्मिक शिक्षा के साथ-साथ दुनियावी शिक्षा भी दी जा रही है कंप्यूटर बच्चों को सिखाया जा रहा है उनके लिए स्कूलों जैसा इंतजाम किया जा रहा है इसके अलावा उनको समाज में कैसे आगे बढ़ना है इसके बारे में भी विस्तार से जानकारी दी जाती है लेकिन जैसा कि मैंने यहां लिखा है कि कुछ लोगों ने मुसलमानों की छवि को मीडिया मे आधी अधूरी बात करके ऐसा बना दिया है और वह लगातार मुसलमानों की छवि खराब करने पर तुले हुए हैं. यह वह लोग हैं जो इतनी जल्दी में रहते हैं कि जैसे ही कोई मामला पेश आता है तो तुरंत यह मीडिया को बयान जारी कर देते हैं या टीवी स्टूडियो में जाकर बैठ जाते हैं और वहां पर अपना आधा अधूरा ज्ञान पेश करना शुरू कर देते हैं. सुप्रीम कोर्ट ने अभी हालिया फैसले में मुस्लिम महिलाओं के बारे में गुजारा भत्ते की जो बात कही उस मामले में भी यही देखा गया कि एक ही विचारधारा वाले विद्वानों की राय अलग-अलग नजर आती है. ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड से लेकर जमीयत उलेमा हिंद ने इस मामले पर अदालत से फिर से ग़ौर करने की अपील की और अपना नजरिया रखा लेकिन वहीं कुछ चंद देवबंदी उलेमा ने इस पर कुछ और ही कहा जिससे एक आम मुसलमान कंफ्यूज हो गया और सोचने लगा कि आखिर यह सब क्या हो रहा है?